Thursday 8 October 2015

शिकवा

न थी कभी कोई परेशानी,
न पहुँचाया किसी को हानि।
फिरते थे खुश होकर,
क्या पता था की रास्ते में ही खाएंगे ठोकर?

कुछ भी बदला न था,
हम दोनों में थी एकता।
जुदाई का बादल कब बरस पड़ा,
और हम दोनों एक दूसरे से हो गए ख़फा ।

फिर कभी मिले नहीं,
किए कभी बातें नहीं ।
एक ऐसा मोड़ आ गया,
मानो भगवान के चेहरे पर मायूसी छा गया।

कुछ तो लोचा था,
जिस बात से हम दोनों में दरार पडा।
फिर रब से जाकर शिकवा किया,
उसने हमें एक दूसरे से अलग क्यों किया?

शिकवा किया की तुमने,
हमें दर्द क्यों दिए ?
क्यों ज़िंदगी ने,
ऐसे खेल खेले?

शिकवा किया की आज,
हमारा ताज,
टूट गया हमेशा के लिए,
न रहे अब खुशी के लम्हे।

कभी बहस न की,
न शिकायत की।
एक आलीशान ज़िंदगी ,
जीने की तमन्ना की ।

अब तो वह भी न रही,
जाने किस जहान  में वह चली ।
उसे ढूँढ़ते -ढूँढ़ते आ पहुँची,
उसी स्थान पर जहाँ से शुरु की थी ज़िंदगी ।

उसे पुकारा,
उसे दिया सबसे ऊँचा दर्जा ।
मगर वह फिर भी नहीं आयी ,
उसने दी है मुझे यह दुहाई ।

आँसू बहते निरंतर ,
दर्द होता है सीने के अन्दर।
कबसे शिकवा कर रही हूँ परमात्मा से,
कि एक बार उसे लौटा दे मुझे।
कि एक बार उसे लौटा दे मुझे।




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