Thursday 12 July 2018

छल (गाना)

दबी-दबी सी,
है हँसी मेरी,
कुछ उलझी-उलझी सी,
है तक़दीर मेरी ।

कौन है भरोसेमंद यहाँ?
छल से भरा है ज़माना,
कौन है मित्र किसका?
कौन अपना, कौन पराया ।

सब दुनियावाले,
नक़ाब पहनकर है घूमते,
चेहरे पर बनते हैं अच्छे,
घूमते ही बन जाते हैं बुरे ।

दो तस्वीरें रखते हैं लोग,
बदलते रहते है ढूँढते ही संजोग,
नादान परिंदे, रहे हैं भोग,
ऐसे लोगों का फैलाया रोग ।

दबी-दबी सी,
है हँसी मेरी,
कुछ उलझी-उलझी सी,
है तक़दीर मेरी ।

छल से तुम बने,
अच्छे से बुरे,
कभी पूछा है खुद से,
अपनों से कितने हुए हो परे?

बुरी आदतें,
शीघ्र है सीखते,
संस्कार अपने,
है भूल जाते ।

प्रख्यात बनने की चाह में,
छोड़ जाते हैं हम अपनों को राह में,
इस दुनिया के छल की आग में,
हम हैं तबाह होते ।

दबी-दबी सी,
है हँसी मेरी,
कुछ उलझी-उलझी सी,
है तक़दीर मेरी ।




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