Monday, 21 September 2015

Hindi poem:Akelaapan

जब मेरा जन्म हुआ था,
मैं  सही-गलत नहीं जानती थी,
यूँ ही कुछ-न-कुछ करती थी,
कभी हँसती , या कभी रोती रहती थी ।

फिर जब चलने लगी,
सहारा मिला था,
अपनो  ने अपनाया था,
खिल उठा मेरा चेहरा।

फिर पढ़ाई करने लगी,
अध्यापक क्या होता है,
मैं तब जान गयी थी,
भगवान क्या होते हैं , मैं तब मान गयी थी ।

फिर एक सुबह,
जब जागी नींद से,
मैं नैनों  को पोछते हुए,
खिड़की से सूरज को देख रही थी उगते हुए।

नया दिन, नयी उम्मीदें,
हर रोज़ नयी बातें,
मगर एक दिन,
सारी खुशियाँ डूब गयी पानी में ।

न प्यास बुझी, न भूख,
मैंने देखा रब का नया रूप,
जाने किस बात से नाराज़ था,
मैंने उनसे जाकर पूछा ।

क्रोधित थे वह,
मेरी ज़िंदगी में दुःख भर रहे थे वह,
मैंने उन्हें रोकने की कोशिश की,
मगर असफल रह गयी ।

आज मैं अकेली हूँ ,
खुद की सहेली हूँ ,
न जाने किसकी मुझे नज़र लगी,
मैं ज़िंदगी में खुशियों के लिए सौदे करने लगी ।

आज जब मुड़कर देखती हूँ ,
तो मेरे पीछे कोई नहीं,
सब मुझसे मीलों दूर चले गए,
और मैं रह गयी.... अकेली ।

-कृतिका भाटिया




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