Poem of the day!
जब मोहरा समझे यह जग किसी को,
उन्हें कोई सफाई नहीं देता है वह,
चुप चाप अपनी मंज़िल की ओर है तांकते रहता,
और अपने आप को है कहता,
दुनियावालों, तुमने अब तक सिर्फ मुझे मौन पाया है,
मंज़िल मेरी दूर नहीं देखो तुम्हें टक्कर देने कौन आया है,
इसे तो मूर्ख समझा था, आज देखो तो कहां तक पहुंच गया,
असीमित है जिसका गगन उसे किस बात की हया,
जीना मुश्किल कर दिया था जिसका,
आज उसी को सफल होते देख हो रहा है बड़ा पछतावा।
सीख लो अपनी गलतियों से अब भी कुछ नहीं बिगड़ा,
क्योंकि मंज़िल पाते ही हमारा ज़माना नहीं, दौर आएगा।
© @knowledgeablebookworm
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